लॉकडाउन के बाद हरिद्वार में बहती निर्मल, उज्ज्वल, स्वच्छ और पवित्र गंगा का एक दृश्य। चित्र साभार : गूगल बाबा |
यूँ बार-बार हाथ धोने से भी हमारे पाप नहीं धुलेंगे ?
ये जो इन दिनों बार-बार हाथ धोने की जरूरत पड़ रही है। इसे देखकर तो यही महसूस होता है जैसे पूरी मानवता के हाथ किसी पाप से सने हैं। हम बार-बार हाथ धोकर अपने हाथों का मैल तो साफ कर सकते हैं, लेकिन अपनी मर चुकी संवेदनाओं से बिध गई आत्मा को कैसे धो सकेंगे? ये यक्ष प्रश्न अब भी हमारे सामने है। हाथ धोकर इसका पश्चाताप कैसे हो सकेगा ? हमारी आत्माओं पर अपने-अपने गुनाहों का बोझ है। हम सब के हिस्से में अपने उपभोग के लिए कुदरत को बेपनाह निचोड़ लेने की जो कालिख पुती है। वो शायद किसी भी सैनिटाइजर से नहीं धुलेगी। हवा से लेकर पानी और जमीन, जंगल तक कुछ भी तो नहीं छोड़ा हमने। सबको अपनी बदहवास उपभोग की हवस में भेंट चढ़ा दिया है। आज जब हम घरों में कैद हैं, तो कुदरत सांस लेने कोशिश कर रही है। जैसे हवा और पानी साफ होने के लिए बेताब रहे हों, खुद को निखारने का कोई मौका मांग रहे थे। लेकिन हमने ऐसा कोई अवसर उन्हें नहीं दिया। लगातार कुदरत से बेतहाशा अपने उपभोग और जरूरत के नाम पर छीनते ही आये हैं। आज शायद उसी का दुष्परिणाम है कि कुदरत ने हमसे ये मौका खुद ही छीन लिया है। कुदरत ने हमारी उपभोगवादी दमघोंटू संस्कृति के बीच खुद सांस लेने के लिए हमें घरों में कैद कर दिया है।
दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी घरों में कैद है। यह एक अभिशाप नहीं तो क्या है कि हम अपनों को गले लगाने के लिए उन्हें जीभर के निहारने के लिए तरस गए हैं। इससे बड़ा श्राप भला और क्या हो सकता है कि अपनों के अंतिम समय में भी उन्हें आखरी विदा देना या देखना नसीब नहीं हो पा रहा है। किसी भी विपदा के भारी समय में जब हमारी संवेदनाओं और भावनाओं का ज्वार उमड़ने लगता है, तो किसी अपने का स्पर्श ही उसे शांत कर पाता है। अफसोस कि हम उसे अपनेपन का स्पर्श पाने के लिए भी मौजूदा समय में तरस जा रहे हैं। कभी-कभी तो लगता है कि कोरोना काल बीत जाने के बाद कहीं हम एक दूसरे से लिपटकर सांत्वना देने जैसे हृदयस्पर्शी कृत्य भूल ही न जाएं। उस बदले हुए समय में और क्या-क्या बदल जाएगा। ये कह नहीं सकते हैं।
बहरहाल कोरोना महामारी के इस भीषण समय के बाद एक बार हमें ये जरूर सोचना होगा कि आने वाली पीढ़ियों को हम क्या देकर जाएंगे ? यही उपभोगवादी संस्कृति जो कुदरत का खजाना ही नहीं उसका दम भी निचोड़ लेती है ! या फिर कोई बीच का रास्ता निकालेंगे और ऐसी फिज़ा देकर जाएंगे, जहां आने वाली पीढ़ियों के साथ-साथ कुदरत भी खुलकर सांस ले सके। जब तक हमारे रोने-हंसने और झूमने-गाने में कुदरत का हंसने-रोना या झूमना-गाना शामिल नहीं होगा। हमें ऐसे और अभिशापों के लिए तैयार रहना पड़ेगा। यदि हम अब भी नहीं चेते तो क्या पता शायद अगली बार अपने पापों के पश्चाताप के लिए हमें यूँ हाथ धोना भी नसीब न हो और पूरी मानवता से ही 'हाथ धोना' पड़ जाए।
© दीपक गौतम
30/4/2020
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