मेरी आवारगी

दिल्ली, अजनीबियत और मैट्रो

ये दिल्ली के मुनरिका विलेज का एक कमरा है, जहां हम यारों से मिलने गए थे। 



दिल्ली आकर हमेशा मजा आता है। जरा जिन्दा सा लगता है। चहल-पहल के बीच कुछ नए अपरिचित से सुन्दर चेहरे दिखते हैं, जो घोलते हैं कि आपको खुद में। महसूस होता है जरा सा अकेलापन और अजनीबियत। लगता है कि इस शहर में नए हैं, लेकिन ये अजनबी से चेहरे तो अपने शहर में भी दिखते हैं।

हर बार हमेशा ये मशीनी से दिखने वाले  इंसान ढ़ेरों ख्वाब लेकर दिल्ली आते होंगे कि उन्हें बस वही करना है। शायद बात करने का इनका भी मन होता होगा, मगर जब तक खुद न बोलिए बोलते ही नहीं। फिर भी दिल्ली में परायापन नहीं लगता। न जाने इन अपरिचित चेहरों को बात करने की मनाही है या वक्त नहीं। ये भी हो सकता है कि उन्हें आदत हो चली हो हर रोज मिलने वाली इस अजनीबियत की। 

मुझे लगता है मैट्रो में सुने जाने वाले इन शब्दों 'यात्रियों से अनुरोध है', 'दरवाजे दाएं तरफ खुलेंगे', 'अगला स्टेशन नोएडा सेक्टर-16' की तरफ ही लोगों के कान लगे रहते हैं। मैट्रो की भीड़ में अपेक्षाकृत सुनी जाने वाली ये खामोसी और पसरी हुई अजनीबियत का भी कोई अपना आलाप है। इसको सुनना भी अच्छा है, ये अजीबियत और अजनीबयत कभी-कभी मुझे बहुत भाती है। 
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"यहां भी पसरी हैं सांसें तेरी, यूं तो एक जमाना हो गया 'आवारा' यहां हमें साथ कुछ वक्त जिये।
 बीता वक्त भी तो कहता है बहुत कुछ, भला वो कैसे रह जाएगा अपना मुंह सिये।"

- 20 जनवरी 2014
© दीपक गौतम 

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