स्थगन है, अंत नहीं.
किसी भी देश के प्रधानमंत्री को ठीक इसी तरह बोलना चाहिए। इतना ही firm और agressively. जिसमें शांति और शक्ति के संतुलन की बात की गई हो। हालांकि पाकिस्तान जैसे कबीलाई इलाके को इससे भी ज़्यादा फटकार लगाई जा सकती है, किंतु अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर किसी पीएम से यह उम्मीद नहीं की जाना चाहिए कि वो कुछ ऐसा कहेंगे कि आवाम झूमकर तालियां बजाने लगे। इंटरनेशनल क्राइसिस कोई एंटरटेनमेंट की चीज़ नहीं होती, न ही दो देशों के बीच युद्ध की आहट कोई सर्कस होता है जो आपका और हमारा मनोरंजन करे। सरकारें इसलिए गठित नहीं होती कि रील की लत लगा चुकी जनता के लिए बम गोले के शॉर्ट्स मुहैया कराए जाएं। या नागरिकों की बोझिल दोपहरों और तन्हा रातों को काटने के लिए उन्हें रोमांच से भरे फुटेज उपलब्ध करवाएं। जहां से हम सिर्फ हमारे सेंटीमेंट्स देखते हैं, वहां से सरकारें ऐसे गुण और धर्म भी देखती होगी जो आपके और हमारे दायरे से बाहर है। इतिहास में भी यही दर्ज है कि दुनिया में अब तक कोई भी ऐसी सरकार नहीं हुई जो भीड़ में मौजूद हर बाशिंदे की उम्मीद पर खरी उतरी हो। हम वो लोग हैं जो दुनिया की हर शे से शिकायत करते फिरते हैं।
कई सहमति और असहमतियों के बावजूद मैं हमारे पीएम के संबोधन से संतुष्ट हूं। उनके संबोधन में बहुत सी बातें बहुत साफ़ और ऐसी हैं जिन्हें अंडरलाइन किया जाना चाहिए। उन्होंने इस क्राइसिस को न्यू नॉर्मल कहकर यह बता दिया है कि मिसाइलें चलती रहेंगी। यह अब हमारे लिए भी नया नॉर्मल है और आगे भी रहेगा। उनके संबोधन को संदेश,चेतावनी और भविष्य की रेखाएं भी नज़र आती हैं।
उन्होंने साफ़ कहा है कि यह युद्ध विराम है। एक स्थगन है, एक पड़ाव है। अगर पाकिस्तान अपनी करतूतों से बाज़ नहीं आता है तो ऑपरेशन सिंदूर अभी जारी है। उन्होंने साफ़ कहा है कि शांति के लिए भी शक्ति की जरूरत होती है। जिस न्यूक्लियर अटैक की कहानियों से भारत में बचपन में ही बच्चे सहम जाते रहे हैं, उसे लेकर अगर वो कहते हैं कि पाकिस्तान की न्यूक्लियर ब्लैकमेलिंग बर्दाश्त नहीं की जाएगी, क्या इसे एक कमतर बयान कंसीडर किया जाना चाहिए?
आतंकी सरपरस्त वाली सरकारें और आतंक के आकाओं को अलग अलग नहीं देखने वाले पीएम के बयान से हमें इतना तो जान ही लेना चाहिए कि स्थगन के बाद वाला अगला उदघोष निर्णायक हो सकता है। जहां तक सीजफायर के अचानक फैसले की बात है उसे छोड़कर मुझे नहीं लगता कि कोई ऐसी बात है जिसे लेकर सरकार की कनपटी पर ट्रिगर ही दबा दिया जाए।
वैसे भी हम क्रिकेट प्रेमी जनता हैं, अगर विकेट बचे हैं तो कम से कम हमें आखिरी ओवर तक तो प्रतीक्षा करना ही चाहिए। बुद्ध पूर्णिमा की शुभकामनाएं देते हुए एक प्रधानमंत्री अगर यह कहता है कि जरूरत पड़ने पर युद्ध का विकल्प भी खुला है तो इससे ज़्यादा उनसे किस तरह के संबोधन की अपेक्षा की जाना चाहिए?
बुद्ध के देश में युद्ध का विकल्प भी खुला है, यह क्या कम है?
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