कभी तकदीर को हमने तो कभी उसने हमें ठोकरें मारी है.. बचपन से इसी अकड में हैं, हमेशा जिन्दगी से पढ़ने की तलब रही है. किताबों से जिन्दगी के फलसफे पढना पसंद नहीं. जीने के इसी गुरुर ने आंगे नहीं बढने दिया.. आलम ये है कि कभी अर्श तो कभी फर्श पे रहते हैं. मंजिल बहुत दूर है और मै सफर में हूं, जिन्दगी में कुछ भी अधूरा छोड़ना फितरत में नहीं, चाहे वो कलाम हो या किताब. आवारगी बहुत रास आती है, इसमें रच बस गया हूं मै. आवारा शब्द बेहद अपने लगते है, सिवाय इनके कुछ भी नहीं मेरे पास....
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