मेरी आवारगी

कुछ खो गया है:)

थी तो वो बेजान सी दिखने वाली चीज मगर तुमने दी थी। दिल के कुछ तार उलझे थे उसमें, तुम्हें पता है जैसे जीवन से तुम खो गए हो सदा के लिए। आज सुबह-सुबह 27 सितंबर 2014 को 'दी' शब्द वाला कीरिंग भी खो गया। बहुत ढूंढा ठीक तुम्हें पाने की सारी कोशिशों जितना, मगर कमबख्त फिर मिला नहीं। अब दूसरा खरीद भी लें तो क्या उसमें तुम्हारी अंगुलियों की छुअन
महसूस होगी। नहीं न....वैसे ही तुम केवल तुम हो मेरे लिए, जो तुम्हें खुद पता नहीं और जैसा कोई नहीं इस दुनियां में। तुम बहुत याद आते हो बे। मगर मुझे याद मत करना अब हम गहरी नदी के दो किनारों कि तरह सदा एक-दूजे के साथ हैं। तुम हमें निहारो हम तुम्हें और बहते चलेंगे साथ-साथ। मिल न पाएंगे कभी नदी सूखने के बाद भी...।
देखो न कितना अजीब है सब। इस कीरिंग के खोने के ठीक पांच माह के अंदर हाल ही में बाजार से वैसा ही नया कीरिंग खरीद लाया था। जैसे आखिरी बार पांच साल संभाली यारी को तुमने 18 जून 2012 को दरकाया था, वैसे ही चंद रोज मेरा साथ देकर ये तेरा-मेरा नामाक्षर 'डी' अपने आप ही दरक गया। शायद ये भी मुझसे जुड़ना नहीं चाहता, क्या खूब है जिसे गाता रहा गजल की तरह...अब वो तेरा नाम भी छिटकने लगा है मुझसे। मन तो करता है इसे वापस जोड़ लूँ मगर ससुरा जी गवाही नहीं देता अबकी जोड़ा-जोड़ी का....।

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