उफ़ ये गजब तमाशा कुर्सी का
दलबदलू राजनीति मनमर्जी का
सर्कस में आया एक नया मदारी
वर्षों पुरानी खद्दर की ही वर्दी का
सन्न-पटक में सोच-समझ कुर्सी बोली
सुन री टेबल हम कितने आसपास
चल ब्याह रचाएं भाग चलें दफ्तर से
लोकतंत्र में वोट-खसोट ही नारा है
हरिया लेकिन अब भी तो बेचारा है
टेबल ने कहा तेरी ही तो सत्ता है
फिर भी न कोई राशन भत्ता है
अब भी जो काबिज है तुझ पर
कोई नई किस्म का कुकुरमुत्ता है
सदियाँ गुजरीं पर तेरा वही लौह
कठपुतली सा राग तुम्हारा है
जन गरज-बरस कर हारा है
कितने आए और चले गए
हमदर्द नहीं क्यों तेरा कोई
तू अब तक क्यूँ बेसहारा है
कुर्सी रो-धोकर के कहती है
सब मेरे इश्क का ही कसूर है
ताकत में मेरी सब यहाँ चूर हैं
मुझसे ही अदावत है इनकी
लोकतंत्र का वही रटा राग
अब जनता की नहीं मैं मर्जी
टेबल इतराकर कहती है
कहने को खूब तमासे हैं
नेता भी यहाँ बेचारे हैं
जब सोकर उठता है ये जन
चोला मेरा हो जाए है मगन
क्या ढोल-ढपाल बजाती है
नारे भी गजब लगाती है
जो चिल्लाचोट मचाती है
सारी अफसर-नेताशाही
तब नतमस्तक हो जाती है
रीढ़ चटककर नेताओं की
हड्डी का राग सुनाती है
जब ये बेकाबू हो जाती है
तब भीड़ पुकारी जाती है
हर तख्तोताज बनाती है
कुर्सी ने कहा सुन जानेमन
अब सब बदला सा दिखता है
जी लालायित हो उठता है
सोती सी फिजा में लोक यहाँ
कुछ जागा-जागा सा लगता है
अब-तेरा मेरा कोई नहीं नाम
चल एक बदन हो जाएँ जान
टेबल का जोर ठहाका था
तू नहीं किसी की यहाँ सगी
तेरे मोह में सदियों हुई ठगी
अब तक वफा नहीं तूने सीखी
कैसे भूलूं तेरी कत्लफरोशी को
क्यों न्यौछावर हो जाऊं प्यारी
दूर-दूर का काफी है तेरा-मेरा
जो ये वर्षों पुराना याराना है
अब शादी-शादी मत कर
तेरे आशिक बहुत जमाने में
हम बोझ सहेंगे अरमानों का
तुम सहना वजन हुक्मरानों का
ये जनता जब तक मैला ढोएगी
बस तू तब तक जीभर के रोएगी
मत गाना अब कोई फटा राग
विरहन के गीत सुहाने हैं
मत याद करो वो रामराज
अब खद्दर के अदद ठिकाने हैं
-'आवारा'
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