मेरी आवारगी

मृत्यु ही शाश्वत है

जीवन में उत्साह खत्म होना ही मौत है





















मृत्यु ही शाश्वत है
सत्य के दो पहलू
एक तेरी आँख का
दूजा मेरी आँख का
सच एक सा नहीं
सबके अपने राग
बदला है जीवन
उपजा है वैराग
कहो सखी कैसे हो
जीवन से प्रेम अपार
सिमटो तुम अंतस में
बहो अपनी रग-रग में
समय एक सा न होगा
आधार बनो खुद का
दुःख भोगा है तुमने
जीवन झरेगा इससे
बीज बंजर में उगेंगे
भरोसे का पानी दो
आग तपाती है तुम्हें
खिचड़ी बनाओ फिर
सोंधी होगी रिश्तों की साग
नमक मेहनत के पसीने से
सपने भुनो उस आग में
जब पकेंगे खुशबू उठेगी
लहू की सी गंध आए जब
समझ लेना तुम जीत गई
कठिन से कठिन काम
सरल होकर ही करोगी
बैरी न बनो टेक सुनो
रोटी चाँद से लाओगी
आलू-प्याज कहाँ है
सब यहीं है सुध लो
तुम्हारा बनाया खाना
और स्वादिष्ट होगा
सत्य में फर्क मत करो
मैं अब भी कहता हूँ
हर सच एक सा होगा
यदि प्रेम शाश्वत ही है
तो मौत से विछोह क्यों
भाव को मत बांटो तुम
मृत्यु जीता हुआ सच
सबसे राहत का भाव है
कलाकार बनना होगा
जीना सीखना है क्या
प्रकृति से मित्रता करो
तुम्हारी रोटी और साग
बन गया है चखो उसे
स्वाद का इल्म हुआ
यही मृत्यु का राग है
तुम अनंत में हो अब
तुमने पकवान बनाया
खाकर सोना है तुम्हें
सवाल जिंदा रखना
तुम निर्झर हो सखी
प्रेम से कोसों दूर
तुमने जी लिया है
ये वैराग का उत्कर्ष
जीवन और मृत्यु
हर सच में ये भाव
मृत्यु शाश्वत ही है
(आवारा ख़याल)

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