( डायरी : फरवरी 2008)
चित्र ; साभार गूगल बाबा |
तेरे
संग जिया समय जब भी बरसता है रूह का कोना-कोना भीग जाता है। तुम्हें याद
करना भी किसी इबादत से कम नहीं है। तुमने साथ रहकर अपना सब कुछ खोया है,
फितरत से ही आवारा था। तुम्हें पाकर खो दिया मैंने। अब वो मंदिर, गाँव,
खेत, मकान और मैदान किनारे वाला झोपड़ा सब हटा दिया गया है। वहाँ बावस्ता
कोई यादनामा कायम है, जिसमें तुम्हारा अश्क उतरा है। जब-जब इस याद की गली
से गुजरता हूँ दिल दिलासा तो देता है, मगर आँख खुलती है और तुम गायब हो
जाती हो।
प्रेम
तो दर्पण है तुम्हारा...ओह देखो सवेरा भी हो गया और मैं पसीज गया हूँ तह
तक आखिर बारिश हो चली है। मुझे तुम याद आ रहे हो, हाँ तुम याद आ रहे हो।
तुम्हें अब भी याद करता हूँ। ये अपना भरम नहीं तुम्हारा साथ है जिसे कभी
नहीं छोडूंगा। कल ही की बात लगती है गाँव की वो गली, तुम्हारा मकान और
किताबों से सजा वो चबूतरा। ठंड के दिन थे। धूप बहाना होता था तुम्हारे लिए
मुझसे मिलने का और मेरे लिए जरा सी तपिश जिससे मौसम का लुत्फ़ लेता था। गर
ये अहतराम साथ होता कि यकीन की अंगीठी में यादों का पानी भाप बनकर उड़ेगा तो
मैं सूरज को कभी डूबने नहीं देता।
गाँव
की मिट्टी की खुश्बू और तुम्हारी कजरारी आँख से महसूसा सोंधापन शहर की हवा
में नहीं है। शहर नहीं आता तो तेरी महक में चहकता रहता, मैंने सब तार-तार
कर दिया है। अब उदास सी शामों में, उनींदी रातों में, आधे-अधूरे कलमों और
कलामों में तुम्हारा राग बजता है। सुनो फिर कब मिलोगी यूँ कि कोई न हो जैसा
आज नहीं। इतना भी एकांत न दो मुझे कभी-कभी आ जाया करो...वो दरवाजे जो गाँव
की सरहद से निकलने के बाद मेरे दिल में लग गए। अब उनका क्या करूँ...तुमने
तो ठोकरें मार-मार कर हिलाने की तमाम जाया कोशिश की थी। मैंने ही कुंडी
नहीं खोली यकीन मानो आज तकरीबन छ साल हो गए हैं तुमसे विदा लिए। अब जब भी
बरसती हो यकीन होता है कि अब भी भीगना बाकी है, प्रेम तो तुमसे अलग होकर
समझ पाया हूँ। तुम रोज न सही जब मुनासिब हो आया करो...तुम्हारी याद में
भीगना अच्छा लगता है।
(बस याद ही काफी है...वजह जो भी हो तुम पास नहीं हो, तुम्हारा साथ महसूस करता हूँ। अब जीवन के आखिरी पड़ाव के बाद ही मिलना होगा)
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