जब कई उदास शामें भी नहीं खोज पाईं तुम्हारा पता मैंने रात की तन्हाई को हमदर्द बना लिया। कुछ ख्बाब उनींदे से वक्त की सिलवटों में लिपटे पड़े हैं, कहीं से दो घड़ी की सुनहरी धूप और शहर का शोर चुरा लाया हूँ अब जी चाहकर भी अकेला नहीं होता। जब साथ चाहिए हो तुम्हारा कोई हवा का झोका छू लेता हूँ...वो दबे पाँव बटोर लाता है तुम्हारी खुशबू। तेरा हर अनकहा उसी ने तो कहा है मुझसे, प्रेम की चटनी और बैर का मुरब्बा हमने उस रिश्ते में सब तो चखा है साथ-साथ। तुम आना मैंने संजो कर रखे हैं अधूरे ख्वाब और हमारी आँखों के आंसू। फिर कहीं दूर आकाश के तले तुम्हारी जुल्फों से जिंदगी के दो हसीन पल चुराने हैं। अभी कुछ भी रिक्त नहीं हुआ है...हम मिलेंगे अबकी बिना प्रेम के सौदे के तुम मेरे अल्फाज में रहना मैं तुम्हारी आँखों से झरता रहूँगा।
....आवारा छुट्टी के रोज
0 Comments