मेरी आवारगी

ताकि कभी तुम्हारा जाना न हो

भोपाल डायरी 10 जुलाई 2012
तुम्हें रूह में मढ़ा कफन की तरह, ताकि जिस्म का जलना तुम्हारा जाना न हो। ये रूहानियत का कफन तो चढ़ा ही रहेगा कयामत तक। अब तुम्हें घोल के पीने के लिए वो प्रेम का रसायन ही काफी है तुमसे हुआ राग और देह से उपजा वैराग हर बदले मौसम में जिंदा रखता है...तुम्हारे कहे आखिरी अल्फाज। तुम्हारे बदलते मौसमी खयालों कि तरह मैं नहीं बदल पाया मोहतरम। कमबख्त आवारगी के एक मौसम में जो ठहरा हुआ हूँ। जब जी आया गले लगाकर भुला दिता सोणिये, पर अस्सी कसे भूल जांदे तैन्नू।
जिंदगी के मखमली दिनों से काँटों के गलियारे तक तुम्हारा साथ ही तो ताजा रखता है। किसी भूली-बिसरी याद की तरह तुम आते-जाते रहते हो। कभी वक्त ठहर जाता है तो कभी भागता है सरपट उन सीखचों कि ओर जिनसे तुम्हारा नाता रहा है। कितना कुछ अनकहा रह जाता है....न जाने ये हर बात तुम तक कभी पहुंचेगी या नहीं। काली रातों को निचोड़कर जो अंधेरा इन काले अल्फाजों से पन्नों में भरता रहा हूँ, शायद वो कभी मेरी रूह का उजाला बनकर उभरे। 
मेरा तो वक्त ही छिन गया है इस एक अबूझ से रास्ते में चलते-चलते। कितना कुछ कहते हुए रुक जाता हूँ तुमसे, न जाने ये जो आज निकल रहा है आसुओं के साथ मेरे वजूद से बाहर वो बस खयाल ही हो। मगर अंदर तक कितनी बातें घर कर रही हैं तुम्हारा इस बार फिर से आना और पुरानी गर्द को हटाकर प्रेम की नई परतें चढ़ाना। मेरी आत्मा को ऐसा लिहाफ पहनने की आदत नहीं है। मैं तो तुम्हारे जाने के बाद ही खुद को पाता हूँ। अब जो महसूस हो रहा है कि तुम शायद कुछ वक्त के लिए हो मेरे पास और फिर कभी न रहोगे। ये खयाल इतना सख्त हो गया है कि एक अजीब सा डर घुस गया है। शायद सच कहा था तुमने अपने किये का भोगा हुआ ही मिलना है मुझे। तुम्हारे आने-जाने के सिलसिलों में जिंदगी का 5 साल घिस गया है। अबकी तुम्हारा जाना आखिरी ही होगा, क्योंकि मुझमें अब इतना साहस शेष नहीं रहा गया है। 
बस हर बार कि तरह अबकी कोई बहस नहीं चाहता। कोशिश भर तुमसे इल्तिजा करने के बाद शायद अपनी आँख के देखे को ही सच मान लूँगा। हो सकता है ये जानेमन शहर भी अपना न रहे। भविष्य की आशंकाओं से इतना घिर गया हूँ कि लगता है अब यहाँ जीना मुनासिब न हो सकेगा। यकीनन भोपाल छूटने वाला है और तुम भी। अब जिंदगी का पहिया कहीं अजनबी सी जगह से शुरू करूँगा जहाँ तुम न हो, तुमसे जुड़ा कोई ताल न हो, न ही वो मस्जिद की सीढ़ियां, न वीआईपी रोड और न मनुआभान की टेकरी। हाँ मैं अब कोई केरवा डैम नहीं चाहता। ये सब मेरा दम घोंटते हैं। 
इतनी सी चाह है कि तुम्हारे हर अच्छे-बुरे किये के बाद भी तुम रूह में ही मढ़ी रहो और उसके लिए तुम्हारा आखिरी अल्फाज काफी है। तुमने कहा था मुझसे जुड़ा बुरा भूल जाओ बस अच्छा याद रखो...पहली बार का मिलना, वो पहली छुअन, बाइक पर आवारागर्दी और न जाने क्या-क्या। मैं नहीं चाहता कि तुम जाओ मगर आने वाले दिन ये तय करेंगे। हो सकता है कि कल की मुलाक़ात और तुम्हें तुम्हारे घर के लिए विदा करते वक्त भोपाल स्टेशन का मिजाज ही ये साफ़ करे....के अबकी तुम घर से लौटोगी मगर मेरी बनकर नहीं। तुम चली भी जाओ तो क्या मेरी ही रहोगी सदा मुझसे दूर रहकर। मैं चाहता हूँ कि तुम चली भी जाओ मगर अबकी तुम्हारा जाना न हो...तुम्हें घोलकर पी गया हूँ...आत्मा में महसूस होता है तुम्हारा प्यार। फिर कभी तुम्हारे कजरे नैनों का जिंदगी में आना न हो, क्योंकि तुम्हारे जिस्म से तो मेरा राग ही नहीं था...तुम्हें जेहन से जिया है और तुम बहुत मीठी हो। 

साभार गूगल
साभार ईश्वर शर्मा सर वाया वाट्स एप

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