मेरी आवारगी

किताबों से उड़ती धुंध

किताबों से कोई किरदार बाहर निकल कर आ जाता तो कितना खूबसूरत होता। अब तक पढ़े गए हर लजीज अल्फाज में मढ़े किरदारों की धुंध से पर्दा हट जाता। सब सामने होता। उनसे मिलना और शब्दों के इतर सीधे गुफ्तगू का अपना मजा होता। किस कदर डूबकर लिखने वालों ने किरदार जिंदा किए हैं।
    किताबों से जिंदगियों की धुंध उड़ती है और अंदर तक पसर जाती है। लिखना सबसे मुसीबत का काम है, खुद से अलग कुछ और जिंदा करने जैसा है। मंटों की कहानियों के चेहरे हों या प्रेमचन्द्र के जिये पात्र। अमृता का प्रेम पड़ाव हो या रागदरबारी के गाँव के ठेठ बाशिंदे। पाओलो के अलकेमिस्ट के नसीब वाली कहानियों का जादुई शख्श या गोर्की के मजदूर। कितना अलग करना होता है इन लिखने वालों को। हद तो ये है कि उसे जीते हैं जिसे देखा नहीं मगर वो सांस लेता है उन्हीं के अंदर जैसे मां हों उसकी और जन्म दे रहे हैं अपने अल्फाजों से उसे।
   यूँ तो कुछ पढ़ा नाही अब तक मगर किताबें जब भी सामने होती हैं उनकी सोंधी गंध के बीच कोई धुंध अक्सर उठती है कि जैसे कोई बाहर चला आ रहा हो पन्नों से निकलकर। बचपन में छुटकी दादी कहानी सुनातीं थीं तो सपने में चार दिन तक राजा-रानी और परियां छाई रहती थीं। जब वो तस्वीरें गायब होने लगतीं तो कुछ और किरदार नई कहानियों से निकलकर अंदर धँस जाते थे।
  नया कुछ भी नहीं है सब हमारे अंदर से पैदा होता है। लिखना तो वैसा ही है कि आदमी नदी सा बहता रहे लगातार और शब्द कोई ऐसा किरदार पैदा कर दें जो बेहद अजनबी हो। वो शायद नया होगा लेकिन तुमसे तब तक नहीं जुड़ा होगा जब तक उसे लिखते हुए जी न पाओ। जिस दिन उस धुंध से निकलकर वो शब्दों में कैद हो जाएगा लिखना सार्थक हो जाएगा। शायद उसे कहते हों शब्दों के सहारे किसी को जन्म देना।
  #-कुछ अजीब से खयालात
  #-किसी उलझी डायरी के पन्ने से

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