महकता गुलाब। |
मैं लौटता हूँ समय के उस पार
जहाँ कभी तुमसे मिलने का जेहनी गलीचा था।
उस द्वार पर अब कोई नहीं मिलता।
इन्तजार बहुत लंबा हो चला है।
उन चौखटों से खड़े होकर तुम्हें आवाज देना
किसी अंतहीन सुरंग में गुम हो जाते हैं शब्द।
लौटकर मुझे भी नहीं सुनाई देते।
मुझ तक कोई आवाज नहीं पहुंचती।
कोई हवा का झोंका जैसे कहता हो।
लौट जाओ अब यहां फूल नहीं खिलते।
ये गलीचा अब गीला नहीं रहता।
इस गुलशन से बहारों ने मुंह मोड़ लिया है।
अब यहां पानी सींचने से चमन नहीं होगा।
रेगिस्तान सी मायूस हो गई है यहाँ धरती।
वो दौर और था जब तुमने यहां फूल उगाए।
आओ मैं तुम्हें उसी फिज़ा की कुछ ताजा सांसें दे दूं।
लौट जाओ घड़ी दो घड़ी की उधार जिंदगी लेकर।
इसमें से चंद सांसें इश्क के मायूसों को दे देना।
यहां तुम्हारा प्रेम दफन है, अब ये मिट्टी सोना हो गई है।
©दीपक गौतम
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