मेरी आवारगी

हमारी उम्मीद नहीं मरनी चाहिए, वही हमें जिंदा रखेगी

(हमारे झुनझुने से ढलती शाम का लिया गया हालिया चित्र)

इस पतझड़ के बाद बारिशों का मौसम जरूर आएगा, इन दिनों जब आसमान में धूप साफ हो चली है। पत्ते साख से लगातार झड़ रहे हैं, अपनी-अपनी टहनियों से अलग होकर उन्हें सूखा छोड़ रहे हैं। कुछ समय बाद इन्हीं साखों से नई कोपलें फूटेंगी और पेड़ की हर टहनी नए पत्तों से लद जाएंगी। ये जो हवाएं अभी कनपटी पर तपिश दे रही हैं। समय आने पर ऐसी ठंडक देती हैं कि इनसे सुखद कुछ नहीं लगता है। शायद यही जीवन चक्र है। इंसानी जिंदगियां यूँ पत्तों की तरह भले ही साख से झड़ जायें, उम्मीद है कि नई कोपलें फूटेंगी और बारिशों का मौसम जरूर आएगा।

सृष्टि के नवनिर्माण के लिए, नई कोपलें फूटने के लिए, उजालों के प्रवेश के लिए और उम्मीदों के नए रंग कुदरत शायद इस महामारी के बाद ही अपनी कूंची से दुनिया के कैनवास में भरने वाली हो। अंधेरे के बाद उजाला ही तो प्रकृति का शाश्वत नियम है। इसलिए ये पतझड़ का मौसम भी जरूर जाएगा और फिर एक नया मौसम नई बहारें लेकर आएगा। बस इसी उम्मीद के साथ इस कठिन समय को जीना सार्थक हो सकता है। क्योंकि हर विपरीत समय में एक उम्मीद ही तो है, जिसका दामन थामकर हम बड़ी-बड़ी कठिनाइयों के पार निकल जाते हैं। इस तबाही और मौत के मंजर में भी उम्मीद नहीं मरनी चाहिए।


यूँ भी मलेरिया और डेंगू जैसी सामान्य सी दिखने वाली कई बीमारियां हैं, जिनकी चपेट में हर साल लाखों लोग आ जाते हैं। इनकी भी कोई वैक्सीन नहीं है। यदि होता तो लाखों जिंदगियां एक ही बीमारी से हर साल तबाह होने बच जातीं। वहीं पोलियो जैसी कुछ ऐसी भी भीषण बीमारियां हैं, जिनके टीके आख़िरकार खोज लिए गए हैं और हर साल बच्चों को लगने के कारण करोड़ों जिंदगियां बच रही हैं। आज भले ही कोरोना जिंदगी का हिस्सा हो, कभी न कभी तो जाएगा या इससे भी बचने का कोई कारगर उपाय निकल आएगा। दुनियाभर में शोध और अनुसंधान जारी है, तो कारगर नतीजे भी निकलेंगे, जीवन फिर मुस्करायेगा।


इस नाउम्मीदी के दौर में ही कहीं उम्मीद छिपी है। आज जब कोविड-19 के बेबसी भरे दौर ने सारा सामाजिक तानाबाना बिखेर दिया है, तब भी कुछ लोगों के दिलों में इसी उम्मीद के दिये रौशन हैं, जिनकी उजली तस्वीरें हर रोज सामने आती हैं। आज जब लगातार भूख से बेहाल, फटेहाल भीषण गर्मी को चीरते मजदूर घरों की ओर निकल रहे हैं, तो उनकी मदद के लिए इस विकट समय में भी हजारों लोग अपनी जान की परवाह किये बगैर मदद के लिए सामने निकलकर आये हैं। ये दौर सिर्फ कोरोना से डटकर मुकाबला करने का नहीं है, बल्कि घटती मानवता और सज्जनता से भी लड़ने का है। ऐसे लोग जो सड़कों पर निकले मजदूरों के दुःख-दर्द को गले लगा रहे हैं, उनका सहारा बन रहे हैं, वो सिर्फ तारीफ नहीं आशीर्वाद और दुआओं के भी काबिल हैं। ये मिटती मानवता की एक आशा हैं, जो गरीब और असहाय मजदूरों के हृदय में प्रेम और विश्वास का दिया जलाये हुए हैं। कई सामाजिक संस्थाएं और आम लोग अपनी-अपनी क्षमतानुसार मदद कर रहे हैं, वहीं सोनू सूद जैसे कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो अकेले ही हजारों मजदूरों को उनके घर तक पहुंचाने में जी-जान से जुटे हैं। हर शहर, कस्बे और गांव में कुछ मुट्ठी भर लोग इंसानियत के पौधे को प्रेम के खाद-पानी से सींच रहे हैं। दुनिया इसी उम्मीद, भरोसे और प्रेम पर टिकी है। इतनी जल्दी इंसान टूट नहीं सकता, न ही मर सकता है हौसला।


शायद इसीलिए जब मजदूरों के पलायन के तमाम सरकारी प्रयास कमतर सिद्ध हो रहे हैं, तो कुछ लोग चुपचाप बिना मीन-मेख निकाले अपने-अपने हिस्से का खाद-पानी इंसानियत के पौधे को सींच रहे हैं। देशभर से आ रहीं ऐसी तमाम तस्वीरें यही कहती हैं कि इस मुल्क में 'मैं' और 'तू' के बीच ''हम" का भाव अभी भी जिंदा बचा है और जब तक यहां "हम" बचा रहेगा, कोई आपदा-विपदा हमें और हमारी इंसानियत को मार नहीं सकती है। हम भले ही टूटकर बिखर जाएंगे, लेकिन मरेंगे नहीं फिर अपनी उम्मीद और हौसले को बटोरकर उठकर खड़े होंगे यूँ ही लड़ते रहने के लिए। हमारी उम्मीद ही हमें जिंदा रखेगी।

©दीपक गौतम


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