किस कदर लिखूं कि लहू जलकर भाप हुआ जाता है।
अमन तो पन्नों में सिमट गया है,
किसी कविता की तरह
अब तो हर ओर बस खून नजर आता है
आतंक का कोई मुखौटा नहीं
वो लाल चेहरे की शक्ल में धरा लाल कर जाते हैं।
अरे खून तो लाल ही है इंसानियत का!
जो कल बहा वो भी लाल था,
बिल्कु गर्म जैसा तुम्हारी रगों में बहा होगा
अपने नापाक मनसूबे को अंजाम देते वक्त।
वो जिसके विचार का लिबास काला कर रहे हो।
उसे गौर से देखो वो लाल किस हक में था और क्यों ?
लाशों का ढेर और बहता खून क्या देगा भला ?
चपेट में जो भी आए,
बहा तो खून ही, वो भी लाल था।
तुम्हारे आदर्श लाल विचारों से मिलाकर देखो।
कितना फर्क है उसे फक्र से महसूस करो।
जंगल में रहकर, खून बहाकर क्या मिलेगा ?
बस्ती में रहो और पसीना बहाओ।
यहीं लड़ो उस हक के लिए जिसकी बात करते हो।
© दीपक गौतम
0 Comments