मेरी आवारगी

बुजुर्गों का जाना जीवन का अभागा होना है

नन्ना बब्बा अपने पंती केशव के साथ।

बब्बा के जीवन के अंतिम दिनों की एक तस्वीर ।

अपने जीवन के अंतिम क्षणों में बाई (दादी)।
   

ज़िंदगी कितने इम्तिहान लेती है। पिछले 7 सालों में पांच से अधिक सयानों का साया सिर से उठ गया। इस बेरहम वक्त में कोई हादसे में चल बसा तो कोई स्वाभाविक मौत का ग्रास बना। ज़िंदगी की डायरी के पुराने पन्ने फटने तक दिल बड़ा मजबूत करता रहा, लेकिन कल जब पांचवां सबसे पुराना पन्ना फटा तो कलेजा फट गया। जिन्हें बस देखकर आप जीते हैं, जिनका होना ही काफी है। वो जब हंसते-मुस्कराते हैं और एक रोज दो रोटी ज्यादा खा लेते हैं तो आपकी भूख बढ़ जाती है। उनकी बीमारियों से वो कम आप ज्यादा जूझते हैं, जिरह बस इतनी सी कि वो कांपते हांथ, झुर्रियों में भी खिला चेहरा, बूढ़ी हड्डियों और सूख चुकी खाल के हाड़-मांस में धंसी रूह अपनी दो प्यारी सी चमकती आँखों से आपको निहारती रहे। जिनके हाँथ थामकर बड़े हुए और चलना सीखा। ज़िंदगी के छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे हर काम में जिनकी गालियों में पगा बेहिसाब लाड़ मिला, वो जब चले जाते हैं तो मां-बाप के होते हुए भी अनाथों सा बोध होता है।

बुजुर्गों का होना जिंदगी की चिलचिलाती धूप भरी दोपहर में बरगद की घनी ठंडी छाँव से ज्यादा है। वो सच में बरगद ही हैं जिनकी साखों से हम उपजे हैं। उनके चले जाने से घर और मन के वो कमरे सूने हो जाते हैं, जहां वो रहते थे। यूँ तो उनकी अनमोल यादें घर के आंगन और दिल के बंद दरवाजों में छिटकी रहती हैं, मगर उनके चले जाने से उपजा शून्य बस हरवक्त आपका कलेजा चीरता रहता है। जीवन के ये खाली स्थान कभी भरा नहीं करते हैं। दादी का जाना रह-रहकर सालता है, उन्हें गए लगभग 6 साल हो गए। ठीक उसी समय साल भर के अंदर उचेहरा वाले दद्दा और बाई चल बसे। जून 2019 में बब्बा का साया सिर से उठ गया। अब परसों 26 दिसम्बर 2020 को बड़े दादा जी यानि नन्ना बाबा का जाना आत्मा का सूखा पड़ जाने जैसा है। ये जीवन में रिश्तों के झर जाने का दौर है। बूढ़े बरगदों के ढह जाने का दौर है। 

ये इतना बड़ा घाटा है, जो कभी पूरा न हो सकेगा। कभी-कभी लगता है लगातार सिर से उठता बुजुर्गों का साया अभागा बनाकर ही छोड़ेगा। यूँ तो जो आया है, उसका जाना तय है। एक न एक दिन इस संसार सागर से हम सभी को जाना है, लेकिन लगातार जिंदगी की माला से टूट कर बिखर रहे इन अनमोल मोतियों को समेटने का कोई करतब अपने पास नहीं है। सयानों के लाड़-प्यार, स्नेह, आशीर्वाद और अनुभवों से गुंथी गुजरे जमाने की इन इबारतों का जिंदगी की किताब से गायब हो जाना एक पूरी पीढ़ी का अंत हो जाना है। 

अब सिवाय गहरे अफसोस के कुछ भी अपने पास शेष नहीं रह गया है। सोचा था कि सारे सयानों के अनुभवों और गुजरे जमाने के दिलचस्प किस्सों को सहेजकर एक पुस्तक की शक्ल दी जाएगी। लगता था कि बचपन से सुने गए उन जीवंत किस्सों के सहारे ही सही, किताब की शक्ल में सब के सब सदा के लिए वक्त के पन्नों पर दर्ज हो जाएंगे। लेकिन जीवन बड़ा निर्मम है। अखबार के पन्ने काले करते-करते कब जीवन का एक दशक फुर्र हो गया पता ही नहीं चला। अब जब समय है, तो किस्से कहने वाले वो सयाने लोग ही नहीं बचे। जी चाहे भी तो मन की इच्छा पूरी न हो सकेगी। मन में बिखरे पड़े अधूरे किस्सों की तरह जिंदगी की ये ख्वाहिश भी अधूरी ही गई। 

जैसे रोना दुःख से रीत जाना होता है। वैसे ही आप बीती लिख देना मेरे लिए संताप हरण है। लिखकर बड़ा हल्का महसूस होता है, क्योंकि बोलकर झर जाना या रो लेना मुझे आता नहीं है। ये शब्द ही मेरी आत्मा का असल। आंसूं हैं। इनके सहारे शनैः-शनैः रोकर झर लेना सदा के लिए संताप से रीत जाना है। क्योंकि सिवाय शब्दों के कुछ भी नहीं मेरे पास। 

© दीपक गौतम 

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