आज कक्का का जन्म दिन है। ये जो फूली सरसों दिख रही है। हमारे कक्का भी इसी की तरह हमेशा खिले रहते हैं। यूँ तो ये पढ़ाई-लिखाई के हिसाब से हमारे जूनियर थे, लेकिन गाँव-घर के रिश्ते में ये हमारे काका ही हैं। इसलिए हमउम्र होने के बावजूद ये कक्का जैसा फील हमसे पाते हैं। आलम ये है कि एमसीयू के हमारा हर कॉमन फ्रेंड इन्हें कक्का कहकर ही बुलाता है। एक तरह से कक्का अब ''जगत कक्का'' की उपाधि ले चुके हैं।
इनसे अपना बहुत स्नेह है। ये भी बड़े अलबेले किस्म के अपनी धुन में रमे व्यक्ति हैं। कामयाबी की तमाम सीढ़ियों को चढ़ने की बजाय गाँव को जीने की राह चुन लेना इतना आसान नहीं होता है। फिलहाल कक्का पारम्परिक कृषि के साथ-साथ दुग्ध पालन कर रहे हैं।
एमसीयू के दिनों में हम दोनों रूममेट और बैचमेट थे। याराना तो अपना गाँव से ही था। कक्का बहुत गुणी हैं, जितना बेहतर खाना बनाते हैं, उतनी ही अच्छी समझ इन्हें साहित्य, सिनेमा और खबरों की है। कक्का ने सागर में हरीसिंह गौर यूनिवर्सिटी से उस समय क्रिमनोलॉजी से स्नातक किया था, जब वो सेंट्रल यूनिवर्सिटी नहीं बनी थी। उन दिनों के बहुत से किस्से हैं, जब अपन कभी भी सागर जा धमकते थे और विवेकानंद हॉस्टल में बर्फ की तरह जम जाते थे। कई-कई रोज वहां रहना होता था। वो लौंग के तड़के वाली दाल और हीटर में सिंकती रोटियों की खुशबू अब तक जेहन में ताजा है। खैर वो किस्सा फिर कभी।
सागर से स्नातक करने कर बाद कक्का हमारे बहुत कहने पर पत्रकारिता में स्नातकोत्तर करने के लिए राजी हुए। हम दोनों ने साथ-साथ एमसीयू का इंट्रेस क्वालीफाई किया। मुझे अभी भी याद है कि कक्का को कैसे-कैसे समझाकर मनाया था। लेकिन आखिरकार वही हुआ ज्यादा दिनों तक ये गांव से दूर नहीं रह पाए।
कुछ साल भास्कर की डिजिटल विंग को देकर इन्होंने सीधे सतना का रुख कर लिया। कुछ दिन विंध्य की पत्रकारिता को समझते रहे, लेकिन हमारे कक्का को यहां की पत्रकारिता नहीं समझ सकी। इसलिए इनका यहां भी मन नहीं रमा। अब ये गाँव में रमते हैं। यहीं भटकते हुए पाए जाते हैं। अब खेत में लहलहा रही फसल से ही ये हरियाते दिखते हैं। यूँ ही लहलहाते रहो कक्का। जानेमन आदमी हो यार। अपनी सदाबहार मुस्कान बनाए रखना। जिंदगी जिंदाबाद। अपनी पार्टी उधार है। इतवार को गाँव में लेंगे। दिल से बधाई। लव यू रहेगा 💝
- 10 फरवरी 2021
© दीपक गौतम
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