सूर्योदय में दमकता वो पीपल का पेड़ जो गुड मॉर्निंग कहता है।
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अपनी कोशिश यथासंभव सभी को जवाब देने की रहती है। फिर भी यदि आप में से किसी को धन्यवाद ज्ञापित नहीं कर सका हूं, तो क्षमाप्रार्थी हूं। आप सभी का दिल की अतल गहराइयों से बहुत-बहुत आभार एवं धन्यवाद। मेरे इस जन्म दिन को खास बनाने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया।
जीवन में हमारा पहला विधिवत जन्म दिन Pushpendra Pal Singh बाबा के आशीष की छांव में मास्टर ऑफ जर्नलिज्म करते वक्त साल 2007 में एमसीयू भोपाल के प्रेस काॅम्पलेक्स वाले कैम्पस में मना था। ये उन दिनों की बात है, जब मुझे पता ही नहीं था कि मेरा असल जन्म दिन किस तारीख को है। काहे से कि मार्कशीट के अनुसार अपनी ऑफीशियल तारीख दिसंबर की है। खैर उस समय Skand Vivek स्कंद सर और Ramveer Gurjar रामवीर सर जैसे बडे़ भाइयों और सीनियर्स के कहने पर हमने खोज-खाजकर 7 फरवरी की असल तारीख का पता किया गया।
आप खुद ही कल्पना कीजिए कि जीवन में कभी जिसका जन्म दिन नहीं मना हो, उसका पहली बार जन्म दिन मनने पर इतना तगड़ा सरप्राइज मिले कि 60 से 100 लोगों के बीच आपका जन्म दिन मने, तो आपकी खुशी का तो ठिकाना नहीं रहेगा। उस पर भी बाबा जैसे आपके शिक्षक वहां देर रात तक आपके साथ मौजूद हों। आपको केक खिलाने के साथ-साथ चेहरे पर पोत भी रहे हों, तो भला वो जन्म दिन आपको कैसे भूल सकता है। हम सब यूं ही नहीं बाबा को इतना लाड़ करते हैं। वो ऐसा बरगद का पेड़ हैं, जिसने कभी अपनी परवाह नहीं की। हम सब उनकी पत्तियां हैं, शाखाएं हैं, जो पूरे देशभर के मीडिया संस्थानों में बडे़-बडे़ पदों पर आज लहरा रही हैं। इसलिए बाबा किसी संस्थान में रहें या न रहें, वो अपने आप में खुद ही एक संस्थान हैं। आपको प्रणाम है बाबा। बहुत-बहुत धन्यवाद कि एक वो दिन है और एक आज का, लगभग 14 साल हो गए हैं। जन्म दिन मनाने का सिलसिला चल पड़ा है। नहीं तो अपना जन्म दिन कब आकर चला जाता था, अपन लोड ही नहीं लेते थे।
माफ कीजिएगा, लिखते-लिखते ‘एमसीयू मोड’ ऑन हो गया था। दोबारा अपनी बतकही पर लौटता हूं कि कुल जमा बात इतनी है कि जीवन में पहली बार मना जन्म दिन बहुत यादगार रहा। अबकी ये जन्म दिन इतवार के रोज पड़ा है। इन दिनों इतवार मेरे लिए जन्म दिन और किसी त्यौहार से कम नहीं होता है, क्योंकि मैं अक्सर गांव में होता हूं। इसलिए ये और भी खास हो गया। अम्मा-पिता जी और परिवारजनों के साथ खूब बतकही होती है। उनके साथ बैठकर लाड़ की चाशनी से पगे पकवान चांपता हूं। सप्ताह में एक रोज गांव आता हूं, लेकिन अम्मा, चाची और पिता श्री जहांन का प्यार कुडे़ल देते हैं। यूं लगता है कि जैसे धरा पर अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं हैं।
मैं बहुत भावुक इंसान हूं। मुझे चाहने और जानने वाले जानते हैं कि मैं कभी दोहरा चरित्र नहीं जीता, जैसा यहां फेसबुक पर दिखता और लिखता हूं। ठीक वैसा ही जीवन में भी पाया जाता हूं। 26 जनवरी को फेसबुक पर ‘जीवन इन दिनों’ नाम से लिखी एक पोस्ट पढ़कर भी मीडिया के काफी मि़त्रों ने मुझे फोन कर कुशल-क्षेम पूंछी थी। मुझे मालूम है कि आप सब मेरे साथ थे, हैं और रहेंगे। दोस्तों कोई बड़ी समस्या नहीं है, बस घर की बात समझिये, उसे घर ही में सुलझाने में लगा हूं। नहीं सुलझेगी तो फिर तो रामजी के आदेश का पालन होगा ही। बाकी आप सब मेरे साथ हैं, तो मुझे कोई डर नहीं है, क्योंकि मैं सच के साथ खड़ा हूं।
बहुत से मित्र लगातार पूछते रहते हैं कि दीपक भाई आप गायब हैं एकदम, इन दिनों कहां हैं, क्या कर रहे हैं। तो आप सबको बता देना चाहता हूं कि इन दिनों मैं गांव-घर पर हूं, अपने सबसे पसंदीदा दयार पर हूं। गांव को जी रहा हूं, उसकी मिट्टी की सुगंध को आत्मा में मल रहा हूं। क्योंकि एक दिन उसी मिट्टी में धंस जाना है। हम और Prem Tripathi कक्का इन दिनों खेती-बाड़ी और गांव को लेकर कुछ नया करने की कोशिश में हैं। जब भी वो कार्य प्रारंभ होगा, तो फलक पर आ ही जाएगा। कई लोगों को लिखने से गुरेज रहता है, तो हम बता दें कि एक तरह से ये हमारी रोज की डायरी है। जो इंटरनेट पर #आवाराकीडायरी #aawarakiidiary नाम से छिटकी पड़ी है। अपन लिखकर ही रीत पाते हैं, रो पाते हैं, हंस पाते हैं या अंदर से बह पाते हैं। क्योंकि बोलकर या कहकर हल्का होने की कला अपने पास नहीं है। इसलिए हल्का होने के लिए मजबूरी में लिखना पड़ता है।
बाद बाकी गांव की इसी मिट्टी में लोट-पोटकर बड़ा हुआ हूं। इसने मुझे बचपन से जवानी तक पाला है। चार से पांच साल बाद अधेड़ उम्र का हो जाउंगा। चालीसा लग जाएगा। इसलिए इस स्वीट थर्टी वाले दौर के खत्म होने से पहले अपने मन की सब कर लेना चाहता हूं। उसके बाद सिर्फ घुमक्कड़ी और लिखाई ही होगी। क्योंकि सिवाय शब्दों के मेरे पास कुछ नहीं है। मेरे लिए यही जिंदगी का असल हासिल हैं। अंत इन्हीें में रमकर हो, तो सुखद रहेगा।
फिलवक्त खेतों और गांव की मिट्टी की सौंधी खुशबू को जीने का सुख भोग रहा हूं। मुझे इसकी प्रेरणा ईश्वर दे रहा है। शायद किस्मत की लकीरों में लिखाकर लाया था कि शहर के मायाजाल से एक दिन मुक्ति मिल जाएगी। सच कहूं तो मैं चाहता भी यही था। लगभग दो दशक तक शहर दर शहर पढ़ाई-लिखाई और अखबारी नौकरियों के चक्कर में भटकता फिरता रहा। जहां भी रहा, जीभर जिया, बेपनाह मोहब्बत मिली, खूब यार-दोस्त बनाए। रिश्तों की दौलत इतनी बटोरी है जिंदगी में कि मालामाल हो गया हूं। अब जाकर वो ठौर मिला है, जिसके दयार पर हमेशा से पड़ा रहना चाहता था। एकदम देसज और गंवई हूं। इसलिए Pankaj Mishra पंकज भैया के माटी-पानी और Girindranath Jha गिरींद्रनाथ झा सर की चनका रेसीडेंसी को देख-सुन और पढ़कर हौसला मिलता रहता हैै।
लगभग डेढ़ साल पहले जून 2019 में दादा जी के स्वर्गवास और उसके तीन माह पहले मार्च 2019 में हुई पिता जी की एंजियोप्लास्टी के बाद भोपाल से मन ही मन विदा तो ले ही ली थी, क्योंकि अलविदा कहना अपनी फितरत में नहीं है। अपन तो फिर मिलेंगे के ध्येय के साथ ही जीते हैं। मेरे लिए उस वक्त ये फैसला लेना बहुत कठिन था कि मैं मध्यप्रदेश माध्यम में बाबा और Naval Shukla नवल सर के सानिध्य में कर रहे क्रिएटिव वर्क को छोडूं या नहीं। लेकिन भोपाल मेरी जान से दिल से विदा तो ले ही ली थी, तो बस फिर क्या था आ गया गांव। मुझे आज भी याद है कि इस फैसले से जब मैंने नवल सर को अवगत कराया तो उन्होंने कहा कि ‘‘दीपक यह अवसर हर किसी को नहीं मिलता है, आप विरले हैं, जो आज के परिवेश में गांव से शहरों की ओर धंस चुकी जिंदगियों के बीच मां-बाप के पास रहने का सौभाग्य पा रहे हैं। इतनी हिम्मत जुटा पा रहे हैं कि गांव की ओर लौट रहे हैं।’’ आपको हमेशा जिंदगी का सबसे बड़ा बिग थैंक्यू रहेगा नवल सर। मेरा हौसला बढ़ाने के लिए।
कभी तहलका हिंदी में Swatantra Mishra स्वतंत्र मिश्रा सर की एक स्टोरी भी पढ़ी थी। शीर्षक था ‘‘लौटने लगे हैं अब लोग मेरे गांव के’’। वो स्टोरी मुझे आज भी याद है। अभी हाल ही में खेती - बाड़ी को लेकर पद्मश्री Babulal Dahiya बाबू लाल दाहिया जी से बात हो रही थी, तो उन्होंने भी हौसला बढ़ाते हुए कहा कि ‘‘आप तो खुद को जलकुम्भी समझिए, चाहे दलदल हो या पानी का तालाब आप बूड़ ही नहीं सकते हैं। हमेशा उतराते ही रहेंगे।’’ गांव को जीने वाला एक 70 वर्ष का अनुभवी बुजुर्ग यदि दो-चार टेलीफोनिक वार्तालापों के बाद आपसे पहली मुलाकात में ऐसा कहता है, तो आपके मन में मोर नाचने लगता है। इसलिए मेरे दोस्तों मैं तो आवारगी का लिहाफ लिए फिलवक्त तो गांव को जी रहा हूं। चालीसा लगते ही कोशिश रहेगी कि आवारा अपनी Namita आवारगी के साथ फटफटिया पर सवार होकर निकल लेगा देशाटन के लिए। थोड़ी सी घुमक्कड़ी की प्रेरणा ‘‘चे’’ की ‘‘मोटरसाइकिल डायरी’’ से भी तो मिलती रहती है न यारों।
जब से गांव-घर की गोद में हूं जमकर भूख लगती है, दबाकर खाता हूं। तानकर सोता हूं। इसलिए पत्रकारिता कोने में रख दी है, लेकिन लिखना नहीं भूला हूं। बघेली में एक कहावत है ना कि ‘‘पुरान बरदा कबहूं खेतबा के कुढ़ नहीं भूलै’’। बस अब जी उचाट सा हो गया है। मन बिदक गया है। जी ही नहीं होता है खबरें, देखने, सुनने और गढ़ने का। नहीं तो मुझे लिखने और छपने की कमी नहीं है। हर रोज दो-चार फोन आ जाता है कि फलां आइडिया पर सतना से एक ग्राउंड रिपोर्ट दे दो। बस अब जी नहीं होता है। खबरों से मेरा मन बिदक गया है। मैं अब सारे झमेलों के इतर माटी की इस सुगंध को सतत आत्मा में मल रहा हूं। एक दिन हंसते-हंसते इसी में एकाकार हो जाउंगा।
आज भोर में जागकर गांव के घर में छत पर बैठकर लैपटाॅप पर यह टाइप करते हुए मुझे कितना सुकून मिल रहा है। आप इसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते हैं। नीचे आंगन पर अम्मा सुबह-सुबह झाडू़ बुहारती हुई दिख रही हैं। चाची चाय के लिए नीचे बुला रही हैं। ठीक इस वक्त गुनगुनी धूप मेरे माथे को चूम रही है। घर से बीस कदम दूर चौराहे पर खड़ा वर्षों पुराना पीपल का पेड़ उसकी पत्तियों से छनकर आ रही शुद्ध हवा के झोंकों से मुझे गुडमाॅर्निंग बोल रहा है। सूर्योदय हो गया है। हां यही वो सवेरा है, जिसकी मुझे हमेशा से तलाश थी।
🎊 शुक्रिया जिंदगी। जिंदाबाद। लव यू अ लाॅट। जहांन में इश्क आबाद रहे। आवारगी बुलंद हो। 💝
- 8 फरवरी 2021
© दीपक गौतम
#आवाराकीडायरी #aawarakiidiary
नोट : पहली तस्वीर दादे के साथ गांव के खेत में ली गई एक हालिया सेल्फी है। दूसरी ताजा तस्वीर आज के सूर्योदय में दमक रहे गांव के उसी पीपल के पेड़ की है, जो मुझसे अक्सर गुड मॉर्निंग कहता है।
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