प्रिय मुनिया,
मेरी जान, मैं तुम्हें यह पत्र तब लिख रहा हूं, जब तुमने पहली बार अपने नन्हें कदम पाठशाला की ओर रखे हैं। तुम्हें स्कूल जाते हुए 2 दिन हो गए हैं। आज 4 अप्रैल की रात को जब मैं तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूं, तब तुम मेंरे पास नहीं हो। क्योंकि मैं एक यात्रा पर निकल चुका हूं और तुम मेरे पास एक दिन बाद वहां पहुंचोगी। स्कूल के ये 2 दिन तुम्हारे लिए गजब के रहे हैं। यूं तो मैं तुम्हें अगले 2 साल तक स्कूल भेजने के पक्ष में नहीं था, ताकि तुम 5 साल तक भरपूर बचपन जी सको। लेकिन तुम्हारी मां की सोच इससे कुछ अलग है और मुझे सहमत होना पड़ा। बदलते वक्त और बदलती शिक्षा व्यवस्था के लिहाज से यह जरूरी था। दूसरा यह कि तुम्हारी मां पिछले 15 वर्षों से शिक्षा के क्षेत्र में ही काम कर रही हैं, तो उसका बदलता मिजाज उन्हें बेहतर पता है। सहमति का दूसरा प्रमुख कारण यह भी रहा कि इस छोटे से शहर के एक नामी स्कूल को बतौर प्रिंसिपल वो 2 वर्ष बहुत बेहतर तरीके से संचालित कर चुकी हैं। ऐसे में भला तुम्हारे लिए शिक्षा और पाठशाला दोनों के चुनाव को लेकर उनके निर्णय से असहमति कैसे रखता। इसलिए तुम्हारा दाखिला तीन साल की उम्र में वहीं कराया गया है, जहां तुम्हारी माता जी की इच्छा रही है। वहां शिक्षा जगत की ताजा बयार के हिसाब से नए कलेवर में बच्चों को खेल-खेल में सिखाने पढ़ाने की अद्भुत व्यवस्था है। बहुत कुछ नया सा है, जो मुझे भी ठीक लगा। कुछ दिन तुम्हें बिना बोझ वाले बस्ते के स्कूल जाना है। खेलना - कूदना, धमाल-मस्ती और मौज यही पढ़ाई है। इस हिसाब से मुझे भी ये बेहतर लगता है। तुमने 2 दिन स्कूल में खूब मस्ती की है, उसके फोटो वीडियो हमारे पास स्कूल से आए हैं। बहुत सी छोटी - छोटी स्पोर्ट एक्टिविटी और फन गेम्स ने तुम्हारी घर की धमाचौकड़ी वाली प्रैक्टिस को और हवा दी है। इसी कारण स्कूल से लौटते ही तुमने दुगनी ऊर्जा से घर पर उधम मचाया है। तुम्हारी मां भी इन दिनों ऑफिशियल टूर से लौटकर सतना में ही हैं, तो वे इसका आनंद उठा रही हैं।
प्रिय मुनिया,
मेरे बच्चे, मैं सच कहूं तो तुम्हारे लिए स्कूल खोजने से लेकर तुम्हें भेजने तक की सारी व्यवस्था और तैयारी में तुम्हारी मां का ही परिश्रम है। क्योंकि मैं तो अपने व्यापार व्यवस्था की उलझनों से ही मुक्त नहीं हो पाता हूं। आलम यह है कि तुम्हें पहले दिन सुबह - सुबह स्कूल छोड़ने का मोह होते हुए भी मैं ये नहीं कर सका हूं। अब तो तुम्हें लाने-ले जाने के लिए भी स्कूल बस आ रही है। वो इसलिए कि पहले दिन तुम्हारी मां और मौसी ही तुम्हें स्कूल छोड़ने गई थीं, लेकिन तुम उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं थी, उनके साथ ही उलटे पाँव घर लौटने की जिद पकड़ ली थी। बड़ी मुश्किल से वे दोनों तुम्हें खेल में उलझाकर वहां से घर लौट सके। ऐसे में तुम्हें बस से आने-जाने की व्यवस्था की गई है, ताकि दूसरे बच्चों के साथ आने- जाने से हमारे मोह से ज्यादा स्कूल और वहां के नए अनुभवों से तुम्हारा जुड़ाव हो सके। अब तुम धीरे-धीरे समझ सकोगी कि मां-बाप और परिजनों के बाद गुरु से ही वास्तव में पहला रिश्ता बनता है। शेष अन्य रिश्ते उसके बाद ही आते और बनते हैं। बहरहाल एक और महत्वपूर्ण घटना तुम्हारे पाठशाला जाने के पहले दिन घटी थी, जिसे देखकर पाठशाला के प्रति तुम्हारे उत्साह और उमंग का पता चलता है। यूं भी कह सकते हैं कि शुरुआत में तो पाठशाला जाने के लिए तुम्हारे अंदर गजब उत्साह दिख रहा है। तुम्हें सुबह कच्ची नींद से भी उठाया जाता है, तो तुम न-नुकुर करते-करते कुछ देर में उठ ही जाती हो। अन्यथा इस वसंत पंचमी को जब तुम्हारा पाठशाला प्रवेश पाटी-पूजन संस्कार के साथ माँ सरस्वती की आराधना से प्रारंभ हुआ था, तब स्थितियां इसके उलट थीं। तुम्हें बड़ी मुश्किल से सुबह-सुबह उठाकर पाठशाला ले जाया गया था।
प्रिय मुनिया,
मेरी जान, मै अब इस पत्र में उस घटना का जिक्र कर रहा हूं, ताकि तुम्हारे पाठशाला के पहले दिन की यादगार के तौर पर ये इतिहास में दर्ज हो सके। क्योंकि मुझे तो इस पत्र में तुम्हारी स्कूल संबंधी जिज्ञासाओं को ही शांत करना है, ताकि भविष्य में जब भी तुम ये पत्र पढ़ो, तो तुम्हें अपने स्कूल के पहले दिन से जुड़ी घटनाएं और स्कूल का दृश्य आंख बंद करते ही दिखने लगें। मेरे शब्दों के सहारे तुम स्कूल के दरवाजे पर पहुंच सको, मैं बस यही चाहता हूं। इसलिए सुनो कि तुम्हें पहले दिन स्कूल छोड़ने के लिए ले जाते वक्त तुम्हारी मौसी सीढ़ियों से फिसल गईं, उन्हें कमर में चोट आई। लेकिन मौसी के फिसलते ही ठीक उस वक्त तुम्हारी प्रतिक्रिया कुछ अलग ही थी। अमूमन किसी की पीड़ा में तुम बड़ा द्रवित हो उठती हो, त्वरित दवा खोजना और देना शुरू कर देती हो। लेकिन उस दिन तुमने स्कूल जाने के उत्साह में अपनी मुम्मू यानि मौसी से सिर्फ स्कूल जाने की जिद की थी। हमेशा की तरह उसके दर्द में शामिल नहीं हुई, तो हुआ भी वही पेन स्प्रे कर तुम्हारी मौसी को अपना दर्द भूलकर तुम्हें स्कूल लेकर जाना पड़ा। साथ में तुम्हारी मां भी थी, जो ये देखकर हतप्रभ थी कि यज्ञा ने पहली बार मुम्मू के दर्द की परवाह नहीं की। तुम्हें इस पत्र में यह भी बता देता हूँ कि तुम बचपन से ही अपनी मौसी को मुम्मू कहकर बुलाती रही हो, ये शब्द तुमने अपनी तोतली जबान से कैसे, क्यों और कब गढ़ा ? ये हम लोग अब तक नहीं समझ पाए हैं। मुम्मू से तुम्हारा अपार प्रेम भी किसी से छिपा नहीं है। इसके बावजूद उस दिन का घटनाक्रम बताता है कि स्कूल जाने में तुम्हारी दिलचस्पी इतनी ज्यादा थी कि तुमने दर्द और दवा को लेकर अपना प्यार भरा झूठमूठ वाला इलाज का उपक्रम भी नहीं दोहराया। यूं तो तुम अभी दर्द और मरहम समझने के लिए बहुत छोटी हो, लेकिन तुम बहुत संवेदनशील हो, उतनी ही भावनात्मक हो। इसलिए किसी के रोने पर तुम्हारे आंसू न बहें ये बेमानी है।
प्रिय मुनिया,
मेरी बच्ची, मैं बस ये घटित हुई छोटी-छोटी घटनाएं लिखकर तुम्हारा बचपन इन चिट्ठियों में उकेर रहा हूं। ताकि ये दर्ज हो सके कि आगे चलकर तुम्हारे व्यक्तित्व का स्वरूप चाहे जो भी हो। तुम्हारा बचपन कितनी मासूमियत, लाड - प्यार, शरारत, परवाह और प्रेम से पगा है। तुम्हारे आस पास कितने प्यार करने वाले इंसान रहे हैं और तुमने उन्हें कितना प्रेम दिया है। तुम्हारी नन्हीं हथेलियों का स्पर्श कितना जादुई है। वास्तव में तुम्हारा हमारी जिंदगी में होना कितना सुंदर है कि तुम हमारी दुनिया का वो रंग बनी, जिसके इर्द - गिर्द ही जिंदगी की सारी रंगत है। ये पत्र बस तुम्हें यही बताने और जताने की कोशिश हैं कि तुम्हारे होने का अर्थ सिर्फ तुम्हारा होना नहीं, बल्कि कुछ सांसों की डोर का भी तुमसे बंधा होना है। इन पत्रों को कभी भी शिकायती पत्रों की तरह मत याद रखना कि तुम्हारी सारी शरारतें यहां दर्ज की गई हैं। बस इन्हें अपनी दुनिया में जिंदा और ताजा रखना कि तुम्हारे पिता ने इन पत्रों के सहारे अपने प्रेम को साझा किया था। मैं बस कुछ और चंद बातें लिखकर इस पत्र को विराम दूंगा। क्योंकि घड़ी की सुई रात के 3 बजाने जा रही है और ये महाकौशल एक्सप्रेस मऊरानीपुर तक पहुंच चुकी है। अगले पत्र में तुम्हारी कुछ नई शरारतों को लिखने की कोशिश करूंगा, जिसे पढ़कर तुम्हें पता चलेगा कि वास्तव में बच्चे मां बाप को कितना इमोशनल ब्लैकमेल कर सकते हैं। तुम्हारी शिक्षा के आरंभ को लेकर बस यही आशा करता हूं कि तुम्हारा ये स्कूल बस एक पाठशाला नहीं, बल्कि जिंदगी की पाठशाला का पहला कदम साबित हो। शिक्षा को लेकर यहां का नवाचार विद्यार्थियों को नए पंख दे, उनकी उम्मीदों, उमंगों और उत्साह को नई उड़ान दे। प्राथमिक शिक्षा नन्हें मन की कोरी स्लेटों पर बड़े खूबसूरत रंग उकेर सकती है, जीवन के कैनवास को और रंगबिरंगा कर सकती है। मैं ईश्वर से कामना करता हूं कि तुम्हारा मन जितना सुंदर है, तुम बेहतर शिक्षा के माध्यम से अपने जीवन की इबारत भी उतनी ही सुंदर लिख सको। तुम्हें जीवन की पाठशाला का यह पहला कदम मुबारक हो बिटवा।
शेष समाचार अगले पत्र में। तुम्हें ढेर सारा प्यार और दुलार मेरी गिलहरी। 💝
- तुम्हारा पिता
-4 अप्रैल 2025
© Deepak Gautam
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लव यू मेरी जान ❣️ 😘
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