मेरी आवारगी

देह से पसीना बनकर टपकती है तुम्हारी याद...!!

गर्मियों की दोपहर में पसीना बनकर पूरी देह से तुम्हारी याद टपकती है, फिर शाम को कोई याद का झोका ठंडक दे जाता है। मन के भीतर से बहते हो तुम और आत्मा भी पसीज जाती है। यादों के भी अपने मौसम हैं, बस इनका सूखा नहीं होना चाहिए।
    मेरे जेहन में तुम किसी फिसलती रेत का पहाड़ सा हो, जो अक्सर तेज आँधियों में अपना स्थान बदलता रहता है। ये यादों का रेतीला टीला कभी अंदर इस कोने टिकता है, तो कभी उस कोने। याद के जंगल भी हैं इस सूने मन में, उसमें एक आँगन है छोटे से वीरान घरौंदे के ठीक बीच। कभी किसी रोज हमने बैठकर वहीँ बातें की होंगी। देखो न अब तक तुम्हारी छाप वहीँ छिटकी है।
    इन जंगलों में हमारे अलावा कोई आया-जाया नहीं करता है। कभी-कभी सोचता हूँ तो लगता है कितना बावरा होता है ये मन जो भरी जवानी में बुढ्ढों सा अतीत के पन्ने पलटता रहता है। फिर लगता है कि प्रेम के काल में तुमसे बेहतर कुछ जिया ही नहीं होगा मैंने। कितने मौसम आए और गए मगर ये याद की बदली है जो कभी छटती ही नहीं। ये रूह उन्हीं दयारों में अक्सर तुमसे मिलने जाती है और दो-चार घड़ी में सदियाँ जी आती है।
     तुमसे पहले भी प्रेम का बसन्त भोगा है मैंने, मगर वो मृगमारिचिका सा था। इसीलिए मैं कस्तूरी की तलाश में भटकता तो रहा वो मुझे मिली नहीं। तुमसे मिलकर ही जान सका कि वो प्रेम की कस्तूरी जिसकी खोज हर आत्मा के पोर-पोर में समाई है वो मेरे अंदर ही थी। तुम्हारे जादुई स्पर्श ने ही इसका अहसास कराया है। तुम्हारी छुअन और खूबसूरत याद की तपन गर्मियों की दोपहर में भी ठंडक दे जाती है। गर्मियों की तरह याद के अलग-अलग मौसम होते हों शायद। तुमसे एक धरा की दूरी पर हूँ और यादों के ब्रम्हांड में तैर रहा हूँ। कभी-कभी सोचता हूँ प्रेम मायावी है या दैवीय ? देखो न इस दोपहर पसीने से भीगे इन बिछौनों को निचोड़ने पर तुम्हारे साथ बीता सारा वक्त बूँद-बूँद टपक रहा है....मेरी देह से यादें रिस रही हैं और मैं तुम्हें जी रहा हूँ !!

#आवाराकीडायरी
#अप्रैल2016

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